हमारे मन-मष्तिस्क में हर रोज हजारों विचारों का संचार होता रहता है। यहाँ तक कि जब हम सोतें है, तब भी हमारे मष्तिस्क की इन्द्रियाँ काम करती रहती हैं। ये विचार नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही प्रकार के होते हैं। कुछ लोग ज्यादा सकारात्मक सोच को और कुछ लोग ज्यादा नकारात्मक सोच को रखने वाले होतें हैं। ये भी एक सच है कि हम अपने जीवन से संतुष्ट नहीं है, चाहे वो उच्च आय वर्ग के हों या फिर निम्न आय वर्ग के। सभी को अपने जीवन से शिकायतें हैं। हमें जो कुछ जीवन से मिलता है, हमें कम ही हमेशां लगता है।
मैं मानती हूँ कि कुछ लोगों को परेशानियां है ,जिनकी आय काम है या जो दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर पाते। सुबह से शाम तक काम करने के बाद भी उनके परिवार के सदस्य आधा पेट भोजन खा कर जीवन जीने को मजबूर हैं। मगर ऐसे लोग भी हैं ,जो मंहगे -महंगे सुख सुविधाओं से लैस होने के बावजूद असंतुष्ट हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमें हमेशा दूसरों का जीवन बेस्ट लगता है। हम खुद की हमेशा दूसरे व्यक्तियों से तुलना करते रहतें हैं। आज आप अपने अंतर्मन से एक बार जरूर पूछिये कि क्या ये सही है ? दूसरे से खुद की तुलना मत करिये, क्योंकि हम अपने आप में सबसे बेस्ट हैं।
किसी की तरक्की से ईर्ष्या मत करें। हमें हमेशा खुद को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। अगर हमारे मन में संतुष्टि की भावना नहीं होगी, तो हमारे पास चाहे जितनी भी सुख-सुविधाएँ क्यों न आ जाएँ, हम खुद को दुखी ही महसूस करेंगे। मैंने इसका अनुभव किया है। मेरी माँ अक्सर कहा करतीं थीं कि जितनी चादर हो उतना ही पैर को फैलाना चाहिए। उस समय माँ की बात मुझे समझ नहीं आती थी। हमेशा सर के ऊपर से गुजर जाया करती थी। मगर वो बातें आज मुझे हमेशा याद रहती हैं। मैं अपने बजट से ऊपर कभी खरीदारी नहीं करती।
हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए की असंतुष्टि की भूख 5-स्टार होटल के खाने से भी नहीं मिटती ,मगर संतुष्टि का एक निवाला भी होठों पर मुस्कराहट ला सकता है। बच्चों में बचपन से हमें यही संस्कार डालना चाहिए, ताकि वो फिजूलखर्ची से सदा बचें रहें और संतुलित जीवन यापन करें। हम सभी में बहुत सी ऐसी महिलाएं होंगी, जिनको शॉपिंग करना बहुत पसंद होता है और जब भी मौका मिलता है तो खरीदारी करने निकल जाती होंगी । चाहे वो चीजें जरुरी हो या नहीं, मगर घर पर आ ही जाता है।
मुझे याद है, मैं अपनी दोस्त की दीदी के शादी की शॉपिंग में उनके साथ गई थी। हम एक दुकान पर गए। बहुत ही बड़ी दुकान थी, सामान बेहद मंहगे लग रहे थे। मैं उस समय बहुत ही छोटी थी और उस समय तक कभी शॉपिंग की दुकान पर नहीं गई थी। उस दुकान की चीजों को देख कर मुझे भी कुछ सामान लेने का बहुत मन हो रहा था, तो देखा-देखी मैंने भी एक लिपिस्टिक को पसंद कर लिया। मगर उसकी कीमत का अंदाजा मुझे नहीं था कि वह कितना मँहगा हो सकता है। मेरे पास उस वक़्त ज्यादा पैसे भी नहीं थे। हमें, आज कल के बच्चों की तरह पापा की तरफ से पाकेट-मनी नहीं मिला करती थी। मैंने उसकी कीमत को देख कर कहा कि मुझे नहीं पसंद है। तब तक रसीद बन चुकी थी। मेरे दोस्त की दीदी ने उसका दाम पे कर दिया था। बाद में माँ से रुपये मांग कर मैंने दीदी को लौटाने की लाख कोशिशें की, मगर दीदी ने रुपया लेने से इंकार कर दिया।
घर आने के बाद माँ ने मुझे बहुत डांटा कि अगर मेरे पास काम पैसे थे, तो मैंने वो चीज क्यों खरीदी ? और वो भी ऐसी जो मेरे किसी काम की नहीं है। माँ ने उसका प्रयोग एक बार ही किया, क्योकि वो सादगी-पसंद थी। फिर वो लिपिस्टिक हमारे गेम्स का हिस्सा बन गया। बाद में,कचरे की डिब्बे की गरिमा को बढ़ाया।
मेरे कहने का मतलब बस इतना ही है, जब हम रूपये को खर्च करतें हैं, तो उसे प्राप्त करने में, हमें उसके पीछे छिपे मेहनत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। क्योंकि रूपये खर्च करना बहुत आसान है, पर उसे कमाना उतना ही मुश्किल है।
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आपकी पोस्ट शानदार है, हमें फिजूलखर्ची से बचना चाहिए। थोड़ा-थोड़ा ही सही पैसा बचाना चाहिए जिससे संकट के समय उसका उपयोग किया जा सके।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंati sundar post hai
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंati sundar post hai
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