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रविवार, 31 मार्च 2024

मानवता

आजकल, मैं जब भी न्यूज़ पेपर के पन्नों को पलटती हूँ , तो मुझे हर रोज चोरी , मार-पीट की खबरें ही पढ़ने को मिलती हैं । कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता, जब ऐसी घटनाओं की खबर न्यूज़ पेपर में न छपे। कभी चेन स्नैचिंग , तो कभी एटीएम में चोरी की कोशिश । यहाँ तक की कई आरोपी घरों में घुस कर डाका डालते है और सफलता में बाधा आने  पर लोगो की जान तक ले लेते है। क्या हो गया है, हमारे समाज के लोगों को ? दिलों में  मानवता  ख़त्म कैसे होती जा रही है  ?


तभी मुझे उस दिन की स्मृतियों ने घेर लिया, जिस दिन  मैं और मेरी बहन कॉलेज जाने के लिए तैयार हुए थे । हमें कॉलेज में एडमिशन फार्म लेने जाना था। पिता जी से हमने 500 रूपए लिए और निकल गए। कॉलेज में हमने 100 -100 रुपए के फॉर्म खरीदे ,फिर वापस घर जाने के लिए निकले। मेरी बहन को कुछ और भी खरीदारी करनी थी और हमने मार्केट से कुछ सामान खरीदा। फिर उसने अपनी पायल, जो साफ करने को सोने-चांदी की दुकान पर  दी थी, उसे भी ले लियाऔर पर्स में रख लिया । 

गंर्मी की तपती धूप थी और रिक्शा भी नहीं दिख रहा था। हमारा गला गर्मी के कारण सूख रहा था, तभी हमने देखा कि एक गन्ने के रस का ठेला खड़ा था। हमारी साँस में साँस आई और हमने जूस पीया।  सामने से एक रिक्शा वाला जा ही रहा था कि हम हड़बड़ी में रिक्शे पर बैठ कर घर के लिए रवाना हो गए। हम कुछ  दूर पहुंचे ही थे कि  मेरी बहन को  याद आया कि  वह अपना पर्स न जाने कहाँ भूल आई। उसे याद ही नहीं आ रहा था कि उसने पर्स को कहाँ छोड़ दिया था। 

हम दोनों कॉलेज की तरफ भागे, मगर तब तक वो बंद हो  चुका था।  फिर मेरी बहन ने कहा की मैंने सेल-फोन  भूल  कर उसी पर्स में डाल दिया था और यह कहते हुए उसकी आखें भर आईं। हम दोनों ने सभी जगह पूछा, मगर हमें पर्स नहीं मिला। दीदी का रो-रो के बुरा हाल  हो गया था। तभी पीछे से हमें आवाज सुनाई दी,--" सुनिए !" हम पीछे मुड़े तो हमने देखा कि जहाँ से हमने जूस पिया था, वो ही ठेले वाला हमें आवाज दे  रहा था। उसने हमें पर्स देते हुए  कहा," बेटा ! ये पर्स और सामान आप दोनों का ही है न ? मैं कब से परेशान था कि आप लोग मिल गए।." 

हमने तब उस ठेले वाले के चेहरे को देखा। वो बहुत ही बुजुर्ग व्यक्ति थे। अगर वो खुद हमें न पहचानते, तो हम उनको नहीं पहचान पाते, क्योंकि हमने जूस पीते समय उनके चेहरे पर गौर भी नहीं किया था। हम उनसे कुछ कह तो नहीं सके, मगर उनकी ईमानदारी ने हमें सिखा दिया कि मानवता  का पाठ किसी पाठशाला की मोहताज नहीं होती है। क्या उस ठेले वाले बुजुर्ग को इन चीजों की जरुरत नहीं होगी ? मगर उन्होंने इसे हाथ भी नहीं लगाया। 

आज मैं जब कभी भी इस बात को याद करती हूँ, तो उस जूस वाले ईमानदार बुजुर्ग की याद आ जाती है। शायद उन्होंने कभी स्कूल का मुँह भी देखा भी होगा या नहीं, मगर उनका यह सबक हमें अपनी सारी शिक्षा के आगे सिर झुकाने पर मजबूर कर देता है। काश ! यह पाठ घर का बच्चा-बच्चा पढ लेता , तो कितना अच्छा होता। 

आज के लिए इतना ही... शुभ रात्रि !

गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

अल्हड़पन

 हमने बच्चों को अक्सर खेलते हुए देखा होगा। कितनी ऊर्जा होती है उनके भीतर ! दिनभर हँसते  मुस्कुराते रहते है। उनके नन्हे कदम दिन-रात दौड़ते रहते हैं,फिर भी नहीं थकते। बच्चों के चेहरे देखकर ऐसा लगता है, जैसे ईश्वर ने उन्हें सारी खुशियाँ दे दी हैं। वो कितनी सुकून भरी जिंदगी जीते हैं ! 

बच्चों के वह खेल -खिलौने, वह बोतलों के ढक्क्न ,वह माचिस की डिबिया, वो नन्हे बर्तनों का पिटारा ,छोटी सी कार जिसमें दुनियाँ की सैर करते रहते हैं। बच्चों का जीवन भी क्या जीवन होता है ! हर कार्य को करने का कितना उत्साह भरा होता है उनमें !  पर ये ऊर्जा बड़े हो जाने पर कहाँ  खो जाती है ? 

हमने नन्हे बच्चे को देखा होगा,  जो अपने पराये का भेद नहीं जानते। जरा सा किसी का इशारा क्या मिला, खिलखिला कर हँस देते हैं। वो मासूम मुस्कराहट ऊँच-नीच ,गरीबी-अमीरी, अपने-पराये से कितनी अछूती है। और हम बड़े जब भी किसी से बात करते हैं, तो हम हमारे मन में मंथन करते रहतें हैं कि वह कैसा है ? हमारा क्या लगता है ? उसका स्टेटस कैसा है ? वगैरा -वगैरा। 

हम भी काश उन नन्हे बच्चों की तरह मासूम व स्वच्छ सोच रख पाते। ये नन्हे बच्चे हर कदम पर हमें ना जाने कितना कुछ सिखा जाते हैं । आपस में लड़ते -झगते हैं, फिर अगले ही पल सारी बातों को भुला कर ऐसे घुलमिल जाते है, जैसे कि  उनके बीच कुछ हुआ ही नहीं।

हम बड़े इतने बुद्धिमान, परिपक्व हो जाने के बावजूद, अगर हमें  किसी ने जरा सी ऐसी बात कह दी, जो हमें पसंद नहीं आई, तो नाराज होकर बैठ जातें हैं।   दोबारा उन रिश्तों की तरफ मुड़ कर देखना भी नहीं चाहते हैं। हम बच्चों को हमेशा नासमझ समझते रहते हैं। पर क्या बच्चे सचमुच नासमझ होते हैं ? हमारी समझदारी से बेहतर उनकी नासमझी है, जो हमें पल भर में दूसरों को माफ़ कर दुबारा प्रेम करना सिखा जाते हैं।

बात चंद हफ्ते पहले की है।  मेरे घर गर्मी की छुट्टी मनाने बच्चे आये थे। उसी शाम मेरे घर पर काम करने वाली महिला भी अपने दो नन्हे बच्चों के साथ काम करने आई। हम सभी नाश्ता कर रहे थे। हमने उस महिला को अपने बच्चों के साथ गैलरी में बैठने को कह दिया ,और सभी नाश्ता -चाय में मशगुल हो गए। 

फिर क्या था ! हम सभी की नजर घर के सबसे छोटे बच्चे पर पड़ी। वह अपनी प्लेट कही ले जा रहा था। हमने उसे डांटा और उसे रोकने के लिए पीछे गए। तो देखा कि वह बच्चा काम करने वाली महिला के बच्चों के साथ अपना नाश्ता शेयर करने लगा। हमने उस बच्चे  को डांटा। फिर दूसरी प्लेट में काम वाली के बच्चों को खाने को दिया।

और जब मैं अकेले में बैठी तो सोचने लगी- आज जो काम 3 वर्ष के बच्चे  किया ,ऐसा हम  सभी क्यों नहीं कर पाते  हैं ? वो निष्छल सोच हम सभी के अंदर  क्यों   नहीं आती है ? ऐसा इसलिए है, क्योंकि  हमने खुद  अपने आगे -पीछे, ऊँच -नीच ,अमीरी -गरीबी का ऐसा  घेरा बना लिया है कि जिसे तोड़ पाना  सम्भव नहीं है। क्योकि अब  हम नासमझ थोड़े ही  रहे, जो ऐसा  करेंगे ! अब तो हम समझदार हो गए है ,बेहतरीन समझदार।